जीवन की अंधी दौड़ में


जीवन की अंधी दौड़ में
आगे निकलने की होड़ में
कितने बिछड़े, कितने छूटे
जाने कितनों ने छो़ड़ा मुझे
जब भी चाहा देखूं मैं पीछे मुड़कर
हिम्मत ने साथ नहीं दिया
वो भी पीछे कहीं छूट गई
हार मान ली उसने, शायद
घड़ी भर दम भरना चाहता हूं
लेकिन डर लगता है
जाने कौन आगे निकल जाए.. !
मन में कई सवाल भी हैं
लेकिन किससे पूछूं.. !
सब तो दौड़ रहे हैं
उस घोड़े की तरह
जिसकी आंख के गिर्द
कपड़ा बांध दिया जाता है
वो रास्ते के सिवा कुछ देख नहीं सकता
घोड़ा बस दौड़ता है
उसे तो मंजिल का पता भी मालूम नहीं होता

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