अब अपनी कविता मत कहो


एक रात मुझसे जिंदगी करने लगी जिद नई
कांधे पर रखकर अपना सर
कहने लगी अब बस करो
अब अपनी कविता मत कहो

तुम्हारी कविताएं मुझे रिझाती हैं
मन बहलाती हैं
उदासी भी मिटाती हैं
लेकिन माँ के साथ घर का काम करने सा सुख नहीं है उनमें

तुम्हारी कविताएं दिल में जगह कर जाती हैं..
भीड़ में तन्हा कर देती हैं..
मेरे अधरों पर बस जाती हैं..
लेकिन नादान भतीजे शरारत में शरीक होने सा सुख नहीं है उनमें

तुम्हारी कविताएं मुझे गुदगुदाती हैं..
मुझमें उमंगे जगाती हैं..
तुम्हारे करीब लाती है..
लेकिन दादी के पांव दबाने सा सुख तो नहीं देती !

तुम्हारी कविताएं आईना दिखाती हैं...
दिमाग के दरवाजों से धूल हटाती हैं..
ज्ञान का प्रकाश लाती हैं
लेकिन किसी बुजुर्ग को सड़क पार कराने सा सुख कहां है उनमें !

तुम्हारी कविताएं आक्रोश जगाती है..
सड़ी गली व्यवस्था से सचेत करती है..
सोचने पर मजबूर करती हैं..
लेकिन बाबूजी से चुपचाप डांट सुन लेने सा संतोष तो नहीं देतीं !

तुम्हारी कविताए सुख के सागर में डुबो देती हैं..
फिर भी मत कहो..
हो सके तो इन्हें जियो..
क्योंकि तुम्हारी कविताओं को जीने सा सुख सुनने में कहां है !

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