
ये मदारी की तरह चुनाव से ठीक पहले इसी तरह की डुगडुगी बजाते हैं सपेरे की तरह बीन बजाते हैं और हम नाचना शुरू कर देते हैं। अरे कोई क्यों नहीं पूछता नीतिश कुमार से कि पांच करोड़ रुपए क्या गुजरात सरकार ने तुम्हारे जेब खर्च के लिए दिए थे जो तुमने वापस कर दिए। लड़ाई तुम्हारी है...मिर्चें तुम्हें लगी हैं तो इसकी खामियाजा जनता क्यों भुगते। अगर तुम्हारे कथित आत्मसम्मान को ठेंस पहुंची है तो तुम अपनी जेब से लौटाओ पांच करोड़। अपनी जिद के लिए जनता का खजाने को क्यों लुटाते हो? इसके बाद बीजेपी और नीतिश, दोनों तरफ से चुनाव प्रचार खत्म होने तक इसी तरह का वाक युद्ध चलेगा और चुनाव सरकार बनाने के लिए एक दूसरे की जरूरत पड़ी तो फिर मोदी और नीतिश उसी चित्र की तरह एक दूसरे का हाथ थामे नजर आजाएंगे।
हमारे देश की जनता भी इतनी भोली है कि बस पूछो मत। चुनाव से पहले नेता ने एक प्रपंच रच दिया चार मीठे बोल बोले, गरीब की झोंपड़ी में बैठकर चाय पीते हुए दस पांच फोटो खिंचवाए दो चार बाइट दी जाते जाते गरीब की सूखी रोटी पर वायदों का एक चम्मच घी रख गए। हम बहक जाते हैं समझने लगते हैं कि यही भगवान राम है जो रा&सों का संहार करेगा। हमें हमारा हक दिलाएगा और सब दुरुस्त कर देगा। इस बार भी यही हो रहा है। पांच साल तक जिस मोदी की पार्टी के साथ मिलकर सरकार चलाई अब अचानक उससे पल्ला झाड़ने का नीतिश कोई बहाना ढ़ूंढ ही रहे थे। दरअसल नीतिश को डर इस बात का था कि अगर इस समय बीजेपी से अलग न हुए तो मुसलमान का वोट उनसे दूर चला जाएगा। बस बड़े मौके से बहाना भी मिल गया। नीतिश ने दांव चल दिया...चाल ये कि स्वंभू हिंदू हृदय सम्राट को जितना कोसोगे उतना ही मुसलमानों के चहेते बनोगे। बस नीतिश बाबू लगे मोदी को कोसने। उधर बीजेपी को भी चुनावी माहौल में हिंदू वोटों को एक जुट करने का अच्छा मौका मिल गया सो उसे इससे क्या परहेज हो सकता था। आग को हवा देने के लिए मीडिया का इस्तेमाल किया गया। 11अशोक रोड़ से प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी ने बयान दे मारा कि राज्य की जनता मोदी को पसंद करती है। बाकी फैसला प्रदेश इकाई लेगी। नीतिश को भी इसी तरह के किसी बयान का इंतजार था। उन्होंने विज्ञापन एजेंसी के दफ्तर पर छापे पड़वा दिए और कोसी बाढ़ राहत के लिए दिए गए पांच करोड़ रुपए वापस कर दिए। अरे नीतिश कुमार न तो ये रुपए मोदी ने अपनी गांठ से दिए थे और न ही तुम्हारे बाल बच्चों के खेल खिलौंनों के लिए कि तुम वापस कर रहे हो। तुम्हे बुरा लगा है तो इसका खामियाजा प्रदेश की जनता क्यों भुगते? क्या तुमने अभी तक ये रकम खर्च नहीं की? अगर ये रकम राज्य सरकार के पास फालतू है तो इसे प्रदेश के विकास में खर्च करो। भई वाह निजी अहंकार तुम्हारा और कीमत चुकाए जनता। कहां का राज है? क्या यही है लोकतंत्र? क्या यही सोचकर प्रदेश की जनता ने तुम्हें राजपाट सौंपा था? वाह री राजनीति जिसकी पीठ पर सवार होकर चुनाव के सागर को पार करते हो उसी की पीठ में छुरा घोंपते जरा भी लाज नहीं आती? कैसे उस जनता के सामने जाकर फिर वोट मांग लेते हैं ये लोग समझ में नहीं आता? लगता है शर्म, हया, मान, मर्यादा, अच्छा बुरा सब फायदे और मुनाफे के आगे खोखले हो गए हैं। राजनीति हो या व्यापार मतलब मुनाफे से है कहीं वोट का तो कहीं नोट का.....जनता का क्या...वो कहां भागी जा रही है...उसे फिर देख लेंगे पांच साल बाद।